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मनहरण घनाक्षरी




संयोग-वियोग तुला, प्यार को यूँ तोलकर
जन्मों के बन्धन का न, अपमान कीजिए
एक से दूसरे पुष्प, भौरों-सा न डोलकर
खुद को चकोर उन्हें, चाँद मान लीजिए
प्यार में जो मिटे उन्हें, मौत मिटा पायी नहीं
मीरा की तरह ही आप, विषपान कीजिए
पास नहीं होकर भी, होगा न ओझल कभी
प्यार को ही बस आप, रब मान लीजिए |
देह पहचान बना, देह ही है घाव घना
देह को ही लेकर वो, नित रहे क्लेश में
कभी भोगे कभी छले, इन्द्र जैसे देव भले
कभी पति बन कभी, साधुजन भेष में
धर्म को लेकर जब, उठ रहें प्रश्न तब
मिला उसे धर्म नया, फैशन के वेश में
फैशन के नाम पर, बिक रही वस्तु बन
कभी अपने घर तो, कभी परदेश में |
हुई कोई खता नहीं, फिर भी ये सता रही
अमिट ये जाने कैसी, अंतहीन चाह है
सब ही बदल गया, वक़्त भी ठहर गया
पल लगे दिन और, दिन लगे माह है
बौछारें भी श्रावण की, बुझा नहीं पायी जिसे
लगी कुछ ऐसी मेरे, अंतस में दाह है
डूब गया जीवन ये, प्यार भरी राहों में ही
मंजिल की कभी नहीं, हुई परवाह है |
कुछ कभी आते काम, कुछ कभी आते नहीं
रिश्तों को मतलब की, तुला पे न तोलिए
होते मोहताज रिश्ते, प्यार भरें लब्ज़ों के ही
आड़ लेकर सच की, कड़वा न बोलिए
बनी रहे चाह सदा, दूर होते रिश्तों में भी
ईर्ष्या-द्वेष वाला मीठा, जहर न घोलिए
रिश्तों के खातिर कभी, दर्द सह जाना और
खाकर भी चोट द्वार, आँखों के न खोलिए |




















डॉ. पवन कुमार

असिस्टेंट प्रोफेसर

निजामाबाद

974761540


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